पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेम कहानी

पृथ्वीराज चौहान का संयोगिता से प्यार दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद शुरू हुआ था


        1211 ईस्वी में, पृथ्वीराज चौहान ने दिल्ली की राजगद्दी संभाली, जो उनके नाना, महाराजा अनंगपाल, की मृत्यु के बाद खाली हो गई थी। गौरतलब है कि महाराजा अनंगपाल को कोई पुत्र नहीं था इसलिए उन्होंने अपने दामाद अजमेर के महाराज और पृथ्वीराज चौहाण के पिता सोमेश्वर सिंह चौहाण से आग्रह किया कि वे पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज घोषित करने की अनुमति प्रदान करें। महाराजा सोमेश्वर सिंह ने सहमति जता दी और पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज घोषित किया गया, काफी राजनीतिक संघर्षों के बाद पृथ्वीराज दिल्ली के सम्राट बने। दिल्ली की सत्ता संभालने के साथ ही पृथ्वीराज को कन्नौज के महाराज जयचंद की पुत्री संयोगिता भा गई।


सुंदरता के बखान से राजकुमारी देखने के लिए बेताब हो गईं।

       कन्नौज के महाराज जयचंद्र की एक सुंदर पुत्री संयोगिता थी। जयचंद्र पृथ्वीराज की बढ़ती हुई शक्ति से ईर्ष्या करते थे। एक दिन कन्नौज में एक चित्रकार पन्नाराय आया जिसके पास दुनिया के महारथियों के चित्र थे और उन्हीं में एक चित्र था दिल्ली के युवा सम्राट पृथ्वीराज चौहान का। जब कन्नौज की लड़कियों ने पृथ्वीराज के चित्र को देखा तो वे देखते ही रह गईं। सभी युवतियां उनकी सुन्दरता का बखान करते नहीं थक रहीं थीं। पृथ्वीराज के तारीफ की ये बातें संयोगिता के कानों तक पहुंची और वो पृथ्वीराज के उस चित्र को देखने के लिए लालायित हो उठीं।

पृथ्वीराज के मन में राजकुमारी की मूर्ति देख प्रेम उमड़ पड़ा


       संयोगिता और उसकी सहेलियां चित्रकार के पास पहुंचीं। चित्र देखकर संयोगिता को लगा कि चित्र में पृथ्वीराज हैं। वह पहली ही नजर में उनसे मोहित हो गईं, लेकिन दोनों का मिलन इतना सहज था। महाराज जयचंद और पृथ्वीराज चौहान में कट्टर दुश्मनी थी। इधर चित्रकार ने दिल्ली पहुंचकर पृथ्वीराज से भेट की और राजकुमारी संयोगिता का एक चित्र बनाकर उन्हें दिखाया जिसे देखकर पृथ्वीराज के मन में भी संयोगिता के लिए प्रेम उमड़ पड़ा। उन्हीं दिनों महाराजा जयचंद्र ने संयोगिता के लिए एक स्वयंवर का आयोजन किया। राजा जयचंद्र ने विभिन्न राज्यों के राजकुमारों और महाराजाओं को संयोगिता के स्वयंवर में आमंत्रित किया, लेकिन पृथ्वीराज को आमंत्रित नहीं किया क्योंकि वह उनसे ईर्ष्या करते थे।


राजकुमारी ने मूर्ति को वरमाला पहनाया, और वह वरमाला चमत्कारी ढंग से पृथ्वीराज के गले में गई।


      राजकुमारी के पिता ने चौहाण का अपमान करने के उद्देश्य से स्वयंवर में उनकी एक मूर्ति को द्वारपाल की जगह खड़ा कर दिया। राजकुमारी संयोगिता जब वर माला लिए सभा में आईं तो उन्हें अपने पसंद का वर (पृथ्वीराज चौहाण) कहीं नजर नहीं आए। इसी समय उनकी नजर द्वारपाल की जगह रखी पृथ्वीराज की मूर्ति पर पड़ी और उन्होंने आगे बढ़कर वरमाला उस मूर्ति के गले में डाल दी। वास्तव में जिस समय राजकुमारी ने मूर्ति में वरमाला डालना चाहा ठीक उसी समय पृथ्वीराज स्वयं आकर खड़े हो गए और माला उनके गले में पड़ गई। संयोगिता द्वारा पृथ्वीराज के गले में वरमाला डालते देख पिता जयचंद्र आग बबूला हो गए। वह तलवार लेकर संयोगिता को मारने के लिए आगे आए, पृथ्वीराज, संयोगिता को अपने साथ लेकर भाग निकले, इससे पहले कि राजा जयचंद्र उन्हें पकड़ पाते।

पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेम कहानी एक दुखद अंत के साथ समाप्त हुई।

जब पृथ्वीराज और संयोगिता कन्नौज से भागकर अजमेर पहुंचे, तो पृथ्वीराज की सेना ने उनका स्वागत किया। पृथ्वीराज ने संयोगिता से विवाह किया और वह अजमेर की महारानी बन गईं।


No comments

Powered by Blogger.